न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः |
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ||५- १४||
शरीररूपी नगर का स्वामी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है,न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है ,न ही कर्मफल की रचना करता है। वह तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।
यद्यपि सृष्टि का निर्माण करने वाला ईश्वर एक ही है ,फिर भी इस जगत में अनेकानेक विविधताएँ हैं। कोई सुखी है , कोई दुखी है। कोई सुन्दर है तो कोई कुरूप है।कोई विद्वान् है तो कोई मूर्ख। आखिर मनुष्यों में यह भेद क्यों?क्यों हम सभी एक ही परमात्मा की संतान होते हुए भी भिन्न-भिन्न रूपों में निर्मित किए गए हैं?जगत की इन अनेकानेक भिन्नताओं का कारण यह है कि ईश्वर ने मनुष्य के कर्मों का निर्माण नहीं किया है। कर्म जीवों ने स्वयं द्वारा किए हैं ,उन कर्मों के फल के रूप में कभी वह श्रेष्ठ योनि में जन्म लेता है , कभी निम्न योनि में। इस प्रकार जन्म मृत्यु, सुख-दु:ख ज़रा- व्याधि आदि मनुष्य को उसके कर्मो के फल के स्वरुप में ही प्राप्त होते हैं।अच्छा जीवन जीने वाला व्यक्ति किसी अन्य पर उपकार नहीं करता , अपितु वह स्वयं को उपकृत करता है।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ||५- १४||
शरीररूपी नगर का स्वामी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है,न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है ,न ही कर्मफल की रचना करता है। वह तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।
यद्यपि सृष्टि का निर्माण करने वाला ईश्वर एक ही है ,फिर भी इस जगत में अनेकानेक विविधताएँ हैं। कोई सुखी है , कोई दुखी है। कोई सुन्दर है तो कोई कुरूप है।कोई विद्वान् है तो कोई मूर्ख। आखिर मनुष्यों में यह भेद क्यों?क्यों हम सभी एक ही परमात्मा की संतान होते हुए भी भिन्न-भिन्न रूपों में निर्मित किए गए हैं?जगत की इन अनेकानेक भिन्नताओं का कारण यह है कि ईश्वर ने मनुष्य के कर्मों का निर्माण नहीं किया है। कर्म जीवों ने स्वयं द्वारा किए हैं ,उन कर्मों के फल के रूप में कभी वह श्रेष्ठ योनि में जन्म लेता है , कभी निम्न योनि में। इस प्रकार जन्म मृत्यु, सुख-दु:ख ज़रा- व्याधि आदि मनुष्य को उसके कर्मो के फल के स्वरुप में ही प्राप्त होते हैं।अच्छा जीवन जीने वाला व्यक्ति किसी अन्य पर उपकार नहीं करता , अपितु वह स्वयं को उपकृत करता है।
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