Thursday, 31 October 2013

नरक से मुक्ति



एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभि र्नरः। 
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।

हे कुन्तीपुत्र ! जो व्यक्ति इन तीनों नरक - द्वारों से बच पाता है , वह आत्म - साक्षात्कार के लिये कल्याणकारी कार्य करता है और इस प्रकार क्रमशः परम गति को प्राप्त होता है। 

Wednesday, 30 October 2013

प्रकृति के तीन गुण.....भाग 3



ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्र्च ये। 
मत्त एवेति तान्विध्दि न  त्वहं तेषु  ते मयि।।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं " तुम जान लो मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं , चाहे वे सतोगुण हों , रजोगुण हों या तमोगुण हों।  एक प्रकार से मैं सब कुछ हूँ , किन्तु हूँ स्वतंत्र।  मैं प्रकृति के गुणों के आधीन नहीं हूँ , अपितु वे मेरे आधीन हैं। 


Tuesday, 29 October 2013

मृत्य का रहस्य: धर्मो रक्षति रक्षित:

"धर्म एव हतो हंति धर्मो रक्षति रक्षित: "

जो जीवन भर धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी  उसी की रक्षा करता है किंतु जो जीवन भर धर्म को मारता है __ मारा गया धर्म हंता को भी मार देता है. कर्ण की मृत्यु इस बात का साक्षात उदाहरण है. इस तथ्य को न जानने वाला दुखी और अधर्मोन्मुखी होने के कारण अस्थिर बुद्धि वाला होता है. 

Monday, 28 October 2013

कृष्ण: "एक किंवदंती, एक कथा, एक गाथा"

कृष्ण  का नाम सुनते ही कभी मुरलीधर, तो कभी माखन चुराते एक नटखट बालक, तो कभी चक्र से राक्षसों का संहार करते, तो कभी निराश अर्जुन को ज्ञान देते हुए, तो कभी गोपियों के साथ रास रचाते हुए एक छवि उभरती है।  यह छवि अप्रतिम सौंदर्य, अनंत ज्ञान एवं अवर्णननीय आनंद का एक मात्र स्रोत है।  कृष्ण एक किंवदंती, एक कथा, एक गाथा हैं; जिनके अनेक रूप हैं और हर रूप की अदभुत लीलायें हैं।  कृष्ण जितने प्राचीन हैं , उतने ही आधुनिक।  जितने ही साधारण हैं , उतने ही असाधारण।  कृष्ण का जीवन एक सम्पूर्ण पुरुषोत्तम का जीवन है।  दूसरे शब्दों में वे संपूर्ण ऐश्वर्य , धर्म , यश , श्री , ज्ञान और वैराग्य को धारण करने वाले हैं।  


ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसश्श्रिय: ।
ज्ञान वैराग्ययोश्चश्चैव पण्णाम्  भग इतिरणा।।

उनक़ा अवतरण लोक कल्याण एवं धरती को पापमुक्त बनाने तथा समाज में व्यवस्था को पुनः स्थापित करने के लिए हुआ था।  श्रीमद्भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं :- "मैं सृष्टि के आदि में हूँ और मैं ही इस सृष्टि के अंत का कारण भी हूँ। 
अहमात्मा गुडाकेशा  सर्वभूताशयस्तिथि: । 
अहमादिश्र्च मध्यम् च भूतानामन्त एव च।।

Sunday, 27 October 2013

आत्म-साक्षात्कार्

अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैयपूर्वक मन को वश में करते हुए, इन्द्रियतृप्ति के विषयों क त्याग कर, राग तथा द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकांत स्थान में वास करता है, जो थोडा खाता है, जो अपने शरीर मन तथा वाणी को वश में रखता है तथा पूर्णतया विरक्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व, काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त है, जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित तथा शांत है वह निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है. 

Saturday, 26 October 2013

प्रकृति के तीन गुण..............भाग 2

























इस लोक में, स्वर्ग लोकों या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसा व्यक्ति विध्यमान नहीं है, जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो. 

Friday, 25 October 2013

gita : कर्मयोगरहस्य

Every action has it consequences. The consequences of one’s actions are called “Karma”. Typically, good karmacis Punyam and leads to benefits; bad karma is papam and it leads to hardship. When unpredictable bad things happen, Hindus attribute it to their bad karma, either from this life or from a previous life. Pious Hindus like to earn Punyam by doing good deeds and wash off their Papam through charity, penance, rituals and prayer. Sometimes it is hard to decide what is a good deed and what is a bad deed. The thought of Karma can paralyze pious people into inaction or remove their motivation to work. Krishna taught that if you do your duty, established in Yoga, not motivated by results, then Karma will not stick to you.
                   The part of the Vedas, called the Karmakanda (section on Karma), teach how to conduct your life and worship, in such a way that you have health, wealth, prosperity and all manner of material comforts on earth and then go onto a blissful life in heaven. Only the Vedanta and Upanishads discuss philosophy. The Vedas deal with the manifest universe. The manifest universe can be described by the three Gunas (qualities). The Sankhyas turn away from material pleasures and from the Karmakanda of the Vedas. They believe that intellect and knowledge are higher than karma. Krishna said that Karma is far inferior to BuddhiYoga. (Union with God through the intellect).
                  The Gita says that one should be above the three Gunas and free from dualities like good and bad, pleasant and unpleasant. People whose intellect is carried away by matters related to experiencing luxury - Bhoga, and wealth do not attain Samadhi. Samadhi is a state of togetherness with the beginning, the First, ie with God. The wise give up the fruits of their actions and become free of the bondages of life. They reach the state of ‘Anamayam’ (Non-illusory? Free from evil?) When you are free from illusion then you will know the difference between what you hear and what you ought to hear. When your agitated mind is still and in Samadhi, you will get rid of Karma and attain Yoga.

Thursday, 24 October 2013

परमात्मा का रहस्य !


                                       

जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में जानता है, वह सब कुछ जानने वाला है।  अतएव हे भरतपुत्र ! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति में रत होता है। 

Whoever knows Me as the Supreme Personality of Godhead, without doubting, is the knower of everything. He therefore engages himself in full devotional service to Me, O son of Bharata.


Wednesday, 23 October 2013

कर्म अपने में "आनंद" है











जो कर्म मनुष्य की ऊर्जा से प्रकट होता है वह शुभ ही होगा।  आवश्यक नही है कि  वासना न हो तो कर्म नही होगा।  हमारे जीवन का अनुभव भी यही है कि  जो कर्म हमसे सहज फूटता है वह हमें आनंद तो देता ही है , परिवेश भी उस कर्म की सुगंध से सुवासित होता है। वासना छूटी कि  अशुभ कर्म स्वत: ही छूट जाता है,  वृक्ष बनना ,नदी का बहना , चिड़ियों का चहचहाना , सूरज का उदय होना आदि।  केशव कहते है की कर्म अपने में "आनंद" है अपने में फल है।  पलायनवाद, नकारात्मकता, घर छोड़ कर जंगल भागना ये सब अकर्मण्यता के उदाहरण हैं।  

नरक के तीन द्वार


Bhagavad-Gita Sanskrit Shaloka [Chapter: 16 - Verse 21]

इस नरक के तीन द्वार हैं - काम, क्रोध तथा लोभ . प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि  इन्हें त्याग दे, क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है. 

trividhaÎ narakasyedaÎ dvÀraÎ nÀÌanam ÀtmanaÏ |
kÀmaÏ krodhas tathÀ lobhas tasmÀd etat trayaÎ tyajet |

The beginning of demoniac life is described herein. One tries to satisfy his lust, and when he cannot, anger and greed arise. A sane man who does not want to glide down to the species of demoniac life must try to give up these three enemies which can kill the self to such an extent that there will be no possibility of liberation from this material entanglement.

Sunday, 20 October 2013

कामधेनु की "अल कबीर यात्रा"

गाय की हत्या के सन्दर्भ यह तर्क दिया जाता है कि वे आर्थिक रूप से अनुपयोगी है।  आम आदमी और प्रशासन इस कुतर्क के फेर में आने लगा है।  इसका उदहारण गौवंश में आती निरंतर कमी और गाय के साथ अत्याचार है।  भारत  सरकार ने दुबई के गुलाम मोहम्मद शेख की सहायता से ४०० करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट "अल कबीर : गौवधशाला" की स्थापना की है गायों के  क़त्ल की जघन्य  और क्रूरतम विधि का प्रयोग इस वधशाला में किया जाता है. काटने से पूर्व उन्हें चार दिन तक भूखा रख कर उनपर गर्म पानी डाला जाता है. इस प्रकार की हत्या का उद्देश्य केवल और केवल मुद्रा कमाना है. गायों को अनुपयोगी घोषित कर उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। आंकड़ो के अनुसार भारत में ३६०० कत्लखाने है जिनमे लगभग ५०००० गएँ प्रतीदिन कटती है।  हिन्दुस्तान जहाँ गाय को माँ का दर्जा मिला है वहा पर ये आकंडे दर्शाते है कि हमारी कथनी और करनी में कितना फर्क है।  गाय की दुर्दशा देश की दुर्दशा है।  अगर गौवध इसी तरह से चलता रहा तो वह दिन दूर नही जब आने  वाली पीढियां  इसे या तो इतिहास की पुस्तकों में देखेगी या चिड़ियाघर में। 

Saturday, 19 October 2013

Karmayoga explained - 4


yajnayacharatah karma samagram praviliyate (4.23)
The person who is totally detached (gatasanga), and free from attachments (mukta), and established in the wisdom of life – (jnanavasthita-ceta), and who performs action as a sacrifice
as detailed in the Third Chapter, for him every action melts, as ice before the sun.

No action will produce a reaction in the case of a person who acts as if in a yajna or a sacrifice – i.e., as a participation in the cosmic purposes and not as an individual actor for the purpose of reaping an ulterior fruit. Expecting a fruit is a special characteristic of selfish action, and there is no expectation of fruit in an unselfish action. It is work for work’s sake, duty for duty’s sake, as they say. The moment there is an intention in the mind to reap a consequence or a fruit tomorrow or the day after or in the future, as the result of karma or action done today, that person is actually thinking in terms of the time process, because the fruit of an action will accrue only after some time. The expectation of the fruit of an action, therefore, is tantamount to involvement in the process of time, and time is equal to death; and such a person is bound by karma. But one who performs actions as a yajna, as a duty, does not expect any fruit. Ulterior motive is totally absent in the case of unselfish action.

अभयं सत्त्व संशुद्धि


Bhagavad-Gita Sanskrit Shaloka [Chapter: 16 - Verse 1]




















The Blessed Lord said: Fearlessness, purification of one's existence, cultivation of spiritual knowledge, charity, self-control, performance of sacrifice, study of the Vedas, austerity and simplicity; nonviolence, truthfulness, freedom from anger; renunciation, tranquility, aversion to faultfinding, compassion and freedom from covetousness; gentleness, modesty and steady determination; vigor, forgiveness, fortitude, cleanliness, freedom from envy and the passion for honor--these transcendental qualities, O son of Bharata, belong to godly men endowed with divine nature.

Wednesday, 16 October 2013

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह :

श्रेयांस्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात। 
स्वधर्मे  निधनं श्रेय:    परधर्मो      भयावह:। ।   

अपने नियत कर्मों को दोषपूर्ण ढंग से संपन्न करना भी अन्य  के कर्मों को भलीभांति करने से  श्रेष्ठ है। अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए मरना पराये कर्मों में प्रवृत होने की अपेक्षा अधिक  उत्तम है,  क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है।  

Monday, 14 October 2013

गौधन का महत्व


गाय भारतीय संस्कृति का मेरुदंड है, उसे निकाल दो तो फिर संस्कृति का अस्तित्व ही कुछ नहीं बचता. सैन्धव सभ्यता से लेकर आज तक गाय हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनी है. गाय का महत्व  केवल हिन्दू ही स्वीकार नहीं करते बल्कि अन्य धर्मों में भी गौधन का गुणगान किया गया है. बुध्द धर्म लोकनीति में कहा गया है - "सब गृहस्थों को भोग देने वाले और पालने वाले गौबल ही हैं अत: माता-पिता के समान उन्हें मानें और सत्कार करें:. 

गाय के दूध को माँ के दूध के सम  रखा गया है. गौघृत में मनुष्य के शरीर में पहुँचे रेडियोएक्टिव पदार्थों को विनष्ट करने की अदभुत क्षमता होती है. आज सम्पूर्ण विश्व में कैंसररोधी ड्र्ग तथा सर्वोत्तम एंटीबायोटिक ऐवम कीतनाशक गौमूत्र ही है. ब्रिटेन के डॉक्टर सेमर्स के अनुसार गौमूत्र रक्त में बहने वाले दूषित कीटाणुओं को नष्ट करता है. अमेरिका के प्रसिध्द वैज्ञानिक जेम्स मार्टिन ने गाय के गोबर, खम्मीर और समुन्द्र के पानी को उबाल कर ऐसा उत्प्ररेक बनाया जिसके प्रयोग से बंज़र भूमि को भी हरी-भरी बनाया जा सकता है. जारी ............... 

पुनर्जन्म का रहस्य

जिस प्रकार जन्म के पश्चात मृत्यु निश्चित है उसे प्रकार मृत्यु के पश्चात  जन्म निश्चित है. आप शिशु होते है, कुछ समय बाद बालक फिर युवा, प्रौढ तत्पश्चात वृद्ध. इसके बाद शरीर छूट जाता है. यह एक चक्रीय प्रक्रिया है. शरीर से अलग होते समय आत्मा कामनाओं के आधार पर दूसरा शरीर ग्रहण करती है.यदि निष्काम है तो शरीर के धारण करने और फिर उसे छोडने के चक्र से अपने को मुक्त कर लेती है. आत्मा चित्त  वृत्ति और बुद्धि से युक्त होती है जिसकी वजह से वह निश्चित गुणो के साथ जन्म लेता है. ......जारी

Sunday, 13 October 2013

सूक्ष्म शरीर के पांच स्तर

 जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि  मानव दो प्रकार के शरीरो से मिलकर बनता है स्थूल और सूक्ष्म. स्थूल शरीर नौ प्रकार के तंत्रों  से मिलकर बनता है जबकि सूक्ष्म शरीर के पांच स्तर होते है..

1.मन 
2.चित्त 
3.वृत्ति
4.बुद्धि
5.आत्मा 
मन  मस्तिष्क  का साफ्टवेयर है जो सूचनाओ को प्राप्त करता है और उनके आधार पर शरीर का संचालन करता है. मन दैहिक और इन्द्रियजन सुखो से अत्यधिक प्रभावित होता है. क्योकि   मन से सूक्ष्म है चित्त जहा पर चित्रण और चयन की प्रक्रिया चलती है. चित्त से सूक्ष्म होती है वृत्ति. वृत्ति मे तुलन और विश्लेषण की प्रक्रिया होती है. आदतों के निर्माण के लिये वृत्ति ही जिम्मेदार है. वृत्ति से सूक्ष्म है बुद्धि जोकि बोध और ऋतम्भरा प्रक्रियाओ का स्थान है. ऋतम्भरा याने भूत भविष्य और वर्तमान को जानने की क्षमता. बोध यानी समझ.  बुद्धि से भी सूक्ष्म, अत्यंत सूक्ष्म है आत्मा. आत्मामे अनुभवपरक क्रियाये होती है...... जारी

Saturday, 12 October 2013

कर्मयोग रहस्य - २

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः |
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ||५- १४||

शरीररूपी नगर का स्वामी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है,न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है ,न ही कर्मफल की रचना करता है। वह तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।

यद्यपि सृष्टि  का निर्माण करने वाला ईश्वर एक ही है ,फिर भी इस जगत में अनेकानेक विविधताएँ हैं। कोई सुखी है , कोई दुखी है। कोई सुन्दर है तो कोई कुरूप है।कोई विद्वान् है तो कोई मूर्ख। आखिर मनुष्यों में यह भेद क्यों?क्यों हम सभी एक ही परमात्मा की संतान होते हुए भी भिन्न-भिन्न रूपों में निर्मित किए गए हैं?जगत की इन अनेकानेक भिन्नताओं का कारण  यह है कि  ईश्वर  ने मनुष्य के कर्मों का निर्माण नहीं किया है। कर्म जीवों ने स्वयं द्वारा किए हैं ,उन कर्मों के फल के रूप में कभी वह श्रेष्ठ योनि में जन्म लेता है , कभी निम्न योनि में। इस प्रकार जन्म मृत्यु, सुख-दु:ख ज़रा- व्याधि आदि मनुष्य को उसके कर्मो के फल के स्वरुप में ही प्राप्त होते हैं।अच्छा जीवन जीने वाला व्यक्ति किसी अन्य पर उपकार नहीं करता , अपितु वह स्वयं को उपकृत करता है।

प्रकृति के तीन गुण

 यह भौतिक प्रकृति तीन प्रकार के गुणों से युक्त है. वो हैं सतोगुण, रजोगुण ऐवम तमोगुण. प्रत्येक मनुष्य इन तीनों गुणों से लिप्त है. ये तीनों गुण मनुष्य पर हावी होते हैं. मनुष्य इन तीनों गुणों के प्रभावस्वरूप कर्म करता है. ये तीनों गुण मनुष्य पर हावी हो कर अपना प्रभुत्व साबित करते हैं. तमोगुण अर्थार्त अन्धकार इस गुण से लिप्त मनुष्य भौतिक सुखों की कामना करता है, जबकी रजोगुण से लिप्त मनुष्य सकाम कर्म से लिप्त ऐवम सतोगुण से लिप्त मनुष्य निष्काम कर्म करता है. ये तीनों गुण मनुष्य पर अपनी प्रभुत्वता साबित करते हैं. यह मनुष्य मात्र पर निर्भर है कि वो किस गुण को अपने ऊपर हावी होने देता है, सतोगुण सभी गुणों में सर्वाधिक उप्रयुक्त है, जारी रहेगा.................................... 

Friday, 11 October 2013

Religion is not Dharma

What is actual DHARMA? Dear Atman! Generally  we are using the term Dharma as synonyms of Religion, in my opinion this is root cause of all confusions and contradictions. Dharma and Religion are not same. The Religion is a component of Dharma just like sect and different ism or so many sacred thoughts founded by prophets or enlightened individuals. The word religious  is derived from Latin word RELIGARE that means "to bind" it means a religion connect people one to one and create brotherhood and equality among them. Religion is related to smooth functioning of a society and ensure peace / less contradictions; while the term of Dharma is derived from Sanskrit language which means "dharan" that is Retention of Sadguna. The basic discrimination between Religion and Dharma is that Religion consists the system and Dharma consists to enrich virtues of individuals. Ten traits of Dharma are described in Indian tradition .....

             धृति क्षमा दमोअस्तेयम शौच्मिन्द्रिय निग्रह  ӏ
             धी विद्या सत्यमअक्रोधो दशमेकम धर लक्षणम  ӏӏ

Dharma does not focus on rituals (Karmakanda) it is enhances the spiritual level of human being so that they could get the ultimate source of happiness (Sat-chit-ananda). Continueued.............


Thursday, 10 October 2013

भोगी और त्यागी

दुनिया मे दो तरह के लोग मुख्यत पाये जाते हैं. पहला सब कुछ पकडने वाला, जिसे हम भोगी कहते है. इस तरह  भोगी सब कुछ जो कि अपनाने लायक ना हो वे उसको भी अपना लेते है . कूडा भी संभाल कर रख लेते है शायद बाद मे काम आयेगा. जबकि दूसरी तरफ वे लोग जो सब कुछ छोडने वाले होते हैं जिन्हे हम त्यागी कहते है. त्यागी भी भोगियो से पृथक नही है बल्कि उल्टा खडे हो कर शीर्षाशन कि मुद्रा मे है. वे उस को भी त्याग देते है जो कि अपनाने योग्य है.

दोनो ही अविवेकी है- भोगी भी और त्यागी भी! भोगी का अविवेक है वह सोचता है जो भी है उसे पकड लो.  क्या असत्य को पकड ले? त्यागी का अविवेक है जो कहता है जो भी है फेंक दो. क्या सत्य को भी फेंक दे? 

गीता इन प्रश्नों के समाधान का मार्ग प्रशस्त करती है और वह मार्ग है निष्काम कर्म का जिसमे आप कर्म करते हुये भी कर्म मे लिप्त नही होते है. यह रास्ता भोग और त्याग की ओर नही बल्कि हमे सदुपयोग की ओर ले जाता है. 

Tuesday, 8 October 2013

आत्मा और परमात्मा : कुछ भी रहस्य नही.

दुनिया मे दो तरह कि वस्तुये मौजूद है पहला वे जो दिखती है दूसरा वे जो कि नहीं दिखती. दूसरे शब्दों मे प्रथम कोटि कि वस्तुओं को मानव अपनि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से देख, सुन, सूंघ, स्वाद एवम स्पर्श से महसूस कर सकता है जैसे पुस्तक कुर्सी इत्यादि. दूसरी कोटि मे वे वस्तुयें आती हैं जो ज्ञानेन्द्रियो से परे है, जिन्हे ज्ञानेन्द्रियो  के सहारे न देखा जा सकता है न सुना जा सकता है न महसूस किया जा सकता है. उदाहरण खाली जगह(Space). तो इस प्रकार कहा जा सकता है कि  अस्तित्व दो तरह के तत्वो से मिलकर बना है

1. इकाईया
2. स्पेस

हम देखते है कि दो इकाई के बीच मे कुछ न कुछ स्पेस अवश्य होता है विज्ञान की भाषा इसे अंतराअणुक स्थान (Intra-Molecular Space) कहते है. यह स्पेस ही विश्व की सारी शक्तियो के लिये एकमात्र जिम्मेदार कारक है. उदाहरण के तौर पर गेद को ताकत से फेंकने के लिये  आपको  स्पेस की जरुरत होती है जिसमे आप अपने हाथ को घुमा सके इसके पश्चात  स्पेस  वेग मे बदल जाता है. बिना स्पेस के आप किसी भी इकाई की कल्पना नही कर सकते. स्पेस मे सारी इकाईया भीगी हुयी है. इकाईयो मे स्पेस है स्पेस मे इकाईया है. व्यापक वस्त (स्पेस) सर्वव्यापी है. मुझमे आपमे पदार्थो मे सब मे यही व्यापक वस्तु विद्यमान है. नाम और रूप इकाईयो का अलग अलग है किंतु उनमे एक बात समान है और वह है... स्पेस या व्यापक वस्तु. 
आत्मा और परमात्मा को इकाई और व्यापक वस्तु के रूप मे देखने और समझने का प्रयत्न करे. सृष्टि का रहस्य समझ मे आ जायेगा. 


Monday, 7 October 2013

चुनौती और प्रत्युत्तर बनाम अर्जुन का प्रज्ञाबोध

मानव के उद्विकास के क्रम मे "अर्नाल्ड टायनबी" का कथन था कि प्रकृति मानव को चुनौती देती है और मानव प्रत्युत्तर के सहारे विकास का रास्ता तय करता है. इस रास्ते की कोई परिभाषा नही है यह सरल और सीमित नही है एक अनुमान के सहारे मनुष्य उस रास्ते पर चल कर तमाम अभीष्ठ लक्ष्यो को प्राप्त करता है. तात्पर्य यह है कि मानव उद्विकास लक्ष्य नही बल्कि अनवरत चलने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया मे सामर्थ्यवान ही चुनौतियो को स्वीकार करते है और उन पर विजय प्राप्त कर मानवता को एक नयी दिशा देने का कार्य करते है और सभ्यता को चुनौतियो पर विजय प्राप्त करने के सूत्र दे जाते है जिससे आने वाली पीढिया सुखमय जीवन व्यतीत कर सके. 
ऐसी ही एक चुनौती (धर्म संस्था की स्थापना और अव्यवस्था या अधर्म का नाश) आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व मानवता  के समक्ष आयी थी, जिसका सामना किसी न किसी को करना ही था. इस बार माध्यम अर्जुन थे. जैसा कि हम जानते है कि मानव भावनाओ और व्यक्तिगत कमजोरियो के साथ ही जीता और मरता है जबकि प्रकृति मे एक ही सिद्धांत लागू होता है और वह है 'क्रिया -प्रतिक्रिया सिद्धांत. ऐसे मे अर्जुन  जैसे भावुक  व्यक्ति के लिये धर्म की रक्षा हेतु स्वजनो से युद्ध करना असम्भव प्रतीत हो रहा था और ऐसा लग रहा था कि मानव मात्र के प्रतिनिधि के रूप  मे इस बार मनुष्य प्रकृति द्वारा दी गयी चुनौती का सामना नही कर पायेगा तब   महामानव श्रीकृष्ण ने  अर्जुन से प्रकृति के उस  अत्यंत गूढ रहस्य को बताया जिसके पश्चात अर्जुन अपनी कमजोरियो और भावनाओ से पार जाकर सत्य और धर्म की रक्षा के लिये युद्ध किया और विजय प्राप्त की. वह रहस्य जोकि  श्रीकृष्ण् और अर्जुन के मध्य सम्वाद के रूप मे उद्घाटित हुआ था उसे "श्रीमद्भगवद्गीता" के नाम से आज जाना जाता है. यहा एक बात स्पष्ट कर दें कि मात्र शाब्दिक ज्ञान होने से आप गीता  को पढ सकते है  या पढा सकते है किंतु न तो वास्तविक अर्थ समझ सकते है और न ही किसी अन्य को समझा सकते है क्योकि उसके लिये आप मे अर्जुन जैसी प्रज्ञाबोध का होना अनिवार्य है. प्रज्ञाबोध की स्थिति  तब आती है जब आप यह स्वीकार कर ले कि..... 

"दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ । 
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।।




वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते  ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।।




न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव  ।।"



अर्जुन ने कहा , हे कृष्ण इन युद्धोन्मत स्वजनों को देखकर मेरे अंग प्रत्यंग में कमजोरी लग रही है , मेरा मूंह सूख रहा है , शरीर में कंपकंपी हो रही है और मेरे रोंगटे खड़े हो रहे है. मेरे हाथ से गांडीव छूटा जा रहा है, त्वचा में जलन हो रही है ,और सर में चक्कर आ रहा है . मेरे लिए खड़ा रहना भी मुश्किल है . हे केशव मुझे तो केवल अमंगल दिख रहा है. 


(ज्ञान का रास्ता असमंजस और संशय से होकर जाता है)

गीता ज्ञानपीठ आपके इसी प्रज्ञाबोध को आपमे अवलोकन कराने मे आपकी सहायता हेतु संकल्पित है.


Sunday, 6 October 2013

आत्मा का रहस्य: भाग -2






शाश्वत दृष्टिसम्पन्न लोग यह देख सकते हैं कि अविनाशी आत्मा दिव्य, शाश्वत तथा गुणों से अतीत है. हे अर्जुन ! भौतिक शरीर के साथ सम्पर्क होते हुये भी आत्मा न तो कुछ करता है और न ही लिप्त होता है. 



Those with the vision of eternity can see that the imperishable soul is transcendental, eternal, and beyond the modes of nature. Despite contact with the material body, O Arjuna, the soul neither does anything nor is entangled.A living entity appears to be born because of the birth of the material body, but actually the living entity is eternal; he is not born, and in spite of his being situated in a material body, he is transcendental and eternal. Thus he cannot be destroyed. By nature he is full of bliss. He does not engage himself in any material activities; therefore the activities performed due to his contact with material bodies do not entangle him.

Friday, 4 October 2013

वास्तविक सन्यासी कौन है?

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५- ३॥
उसे तुम सदा संन्यासी ही जानो जो न घृणा करता है और न इच्छा करता है।  हे महाबाहो, द्विन्दता से मुक्त व्यक्ति आसानी से ही बंधन से मुक्त हो जाता है॥
A person should be considered a true renunciant who has nei­ther attachment nor aversion for anything. One is easily liberated from Karmic bondage by becoming free from the pairs of opposites such as attachment and aversion.

Wednesday, 2 October 2013

श्री राधा तत्व चिंतन ( राधा जी कौन हैं ? )

 येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहश्चैकः क्रीड़नार्थं द्विधाभूत।
देहो यथा छायया शोभमानः ........।।
श्री राधिका जी और रससिन्धु श्रीकृष्ण का देह एक है। केवल लीला के लिए ही ये दो स्वरूपों में प्रकट है ,जैसे शरीर अपनी छाया से सुशोभित हो।

जैसे दूध और उसकी धवलता में , अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति में ,भूमि और गन्ध में तथा जल और उसकी शीतलता में कोई भेद नहीं है ,वैसे ही तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है ,वैसे ही हम दोनों भी एक हैं। हम में कोई भेद नहीं है। मेरे बिना तुम निर्जीव हो और तुम्हारे बिना मैं अप्रकट हूँ। ..........भगवान श्रीकृष्ण 
In traditional  literature, Krishna is compared to the sun, and Radha to the sunshine. Both exist simultaneously, but one is coming from the other. Still, it is a misconception to say that the sun is prior to the sunshine- as soon as there is a sun, there is sunshine. More importantly, the sun has no meaning without sunshine, without heat and light. And heat and light would not exist without the sun. Thus, the sun and the sunshine co-exist, each equally important for the existence of the other. It may be said that they are simultaneously one and different.” Krishna therefore is described as the shaktiman, the energetic source whereas Radharani is the shakti or the energy. A familiarity with the Indian Vedic tradition allows one to note that the shaktiman is never addressed separately, but rather along with its shakti. For instance Krishna is always addressed as Radha-Krishna; likewise there is Lakshmi-Narayana and Sita-Rama. The calling of the shakti first is significant; it signifies that to approach the Lord in any of his forms, we must first go through their energies or more appropriately their consorts.

Tuesday, 1 October 2013

Gita on angerness
















क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२-६३॥


क्रोध से अत्यन्त मूढ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुध्दि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुध्दि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।

"Thinking constantly (chintan) on the objects of senses, a man develops attachment for them; from the attachment springs desire, and from desire (obstruction in fulfillment) ensues anger. From anger arises delusion (foolishness); from delusion, confusion of memory; which results in loss of reasoning/discrimination (Viveka), and with loss of reasoning/discrimination, he oes to complete ruin."