
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते । 4-14
"कर्मों के फल में मेरी अभिलाषा नहीं है ,इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते - इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है , वह भी कर्मों से नहीं बंधता।"
मनुष्य जब प्रकृति के साथ संबंध जोड़ कर प्राकृत वस्तुओं की कामना करता है तब जो क्रिया होती है वह कर्म है , तादात्म्य टूटने पर वही कर्म अकर्म हो जाता है ,क्रियामात्र रह जाता है.उसमे फल जनकता नहीं रहती ; परन्तु प्रकृति या शरीर से अपनी पृथकता का अनुभव न होने से वे क्रियाएँ 'कर्म' बन जाती हैं।
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